क़ामत को तेरे सर्व सनोबर नहीं कहा
जैसा भी तू था उस से तो बढ़ कर नहीं कहा
उस से मिले तो ज़ोम-ए-तकल्लुम के बावजूद
जो सोच कर गए वही अक्सर नहीं कहा
इतनी मुरव्वतें तो कहाँ दुश्मनों में थीं
यारों ने जो कहा मिरे मुँह पर नहीं कहा
मुझ सा गुनाहगार सर-ए-दार कह गया
वाइज़ ने जो सुख़न सर-ए-मिंबर नहीं कहा
बरहम बस इस ख़ता पे अमीरान-ए-शहर हैं
इन जौहड़ों को मैं ने समुंदर नहीं कहा
ये लोग मेरी फ़र्द-ए-अमल देखते हैं क्यूँ
मैं ने 'फ़राज़' ख़ुद को पयम्बर नहीं कहा
ग़ज़ल
क़ामत को तेरे सर्व सनोबर नहीं कहा
अहमद फ़राज़