क़ाइल भला हों नामा-बरी में सबा के ख़ाक
फिरती है वो भी गलियों में अक्सर उड़ा के ख़ाक
कहता हूँ सोज़-ए-दिल से कि कर चुक जला के ख़ाक
एक बात पर जो यार ने जानी उठा के ख़ाक
क्या काँपता है नाला-ए-सोज़ाँ से ऐ फ़लक
जब बात थी कि मुझ को किया हो जला के ख़ाक
पानी निकल के दश्त में जारी है जा-ब-जा
या-रब गया है कौन ये सर पर उड़ा के ख़ाक
दामन उठा उठा के जो बचता हुआ चला
क्यूँ होवें मर के कूचे में इस बेवफ़ा के ख़ाक
रिज़वाँ अबीर-ए-ख़ुल्द से बदलूँ न ज़ीनहार
ख़ुश्बू है कूचे में वो मिरे मह-लक़ा के ख़ाक
'आरिफ़' को यारो हम तो समझते थे अहल-ए-दीं
दरिया में लोग आए हैं उस की बहा के ख़ाक
ग़ज़ल
क़ाइल भला हों नामा-बरी में सबा के ख़ाक
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़