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पूरी मिरे जुनूँ की ज़रूरत न कर सके | शाही शायरी
puri mere junun ki zarurat na kar sake

ग़ज़ल

पूरी मिरे जुनूँ की ज़रूरत न कर सके

सबा अकबराबादी

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पूरी मिरे जुनूँ की ज़रूरत न कर सके
सहरा-ए-जाँ भी हो तो किफ़ालत न कर सके

सई-ओ-अमल की रूह मोहब्बत के साथ थी
वो कुछ न कर सके जो मोहब्बत न कर सके

दुनिया में जितने ग़म मिले दिल में बसा लिए
हम सिर्फ़ तेरे ग़म पे क़नाअ'त न कर सके

अपना ही हाल-ए-ज़ार सुनाते रहे तुझे
लेकिन तिरे सितम की शिकायत न कर सके

ताराज कर के इश्क़ की बस्ती चले गए
तुम फ़त्ह कर के दिल पे हुकूमत न कर सके

दुनिया में अब भी लोग वफ़ा के हैं मुद्दई'
हासिल हमारे हाल से इबरत न कर सके

है काफ़िर-ए-अदब मिरे मशरब में ऐ 'सबा'
शाइ'र जो एहतिराम रिवायत न कर सके