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पूछो अगर तो करते हैं इंकार सब के सब | शाही शायरी
puchho agar to karte hain inkar sab ke sab

ग़ज़ल

पूछो अगर तो करते हैं इंकार सब के सब

असअ'द बदायुनी

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पूछो अगर तो करते हैं इंकार सब के सब
सच ये कि हैं हयात से बेज़ार सब के सब

अपनी ख़बर किसी को नहीं फिर भी जाने क्यूँ
पढ़ते हैं रोज़ शहर में अख़बार सब के सब

था एक मैं जो शर्त-ए-वफ़ा तोड़ता रहा
हालाँकि बा-वफ़ा थे मिरे यार सब के सब

सोचो तो नफ़रतों का ज़ख़ीरा है एक दिल
करते हैं यूँ तो प्यार का इज़हार सब के सब

ज़िंदाँ कोई क़रीब नहीं और न रक़्स-गाह
सुनते हैं इक अजीब सी झंकार सब के सब

मैदान-ए-जंग आने से पहले पलट गए
निकले थे ले के हाथ में तलवार सब के सब

ज़ेहनों में खौलता था जो लावा वो जम गया
मफ़्लूज हो के रह गए फ़नकार सब के सब