पीरी में शौक़ हौसला-फ़रसा नहीं रहा 
वो दिल नहीं रहा वो ज़माना नहीं रहा 
क्या ज़िक्र-ए-मेहर उस की नज़र में है दिल वो ख़्वार 
शायान-ए-जौर-ओ-ज़ुल्म दिल-आरा नहीं रहा 
झगड़ा मिटा दिया बुत-ए-काफ़िर ने दीन का 
अब कुछ ख़िलाफ़-ए-मोमिन-ओ-तरसा नहीं रहा 
उश्शाक़-ओ-बुल-हवस में नहीं करते वो तमीज़ 
वाँ इम्तियाज़-ए-नेक-ओ-बद असला नहीं रहा 
क्यूँ बहर-ए-सैर आने लगे गुल-रुख़ान-ए-दहर 
पीरी में दिल सज़ा-ए-तमाशा नहीं रहा 
कह दो कि क़ब्र-ए-नाश भी की उस की पाएमाल 
नाम-ओ-निशान-ए-आशिक़-ए-रुस्वा नहीं रहा 
अब तक यहाँ है इज्ज़ ओ नियाज़ ओ वफ़ा की धूम 
वाँ लुत्फ़ ओ इल्तिफ़ात ओ मदारा नहीं रहा 
कश्ती बग़ैर दश्त-नवर्दी हो किस तरह 
अश्कों से बहर हो गया सहरा नहीं रहा 
मस्ती में रात वो न खुले मुझ से हम-नशीं 
कुछ ए'तिबार-ए-नश्शा-ए-सहबा नहीं रहा 
क्यूँ जाएँ फिर के काबे से 'नस्साख़' दैर को 
वो सर नहीं रहा वो सौदा नहीं रहा
        ग़ज़ल
पीरी में शौक़ हौसला-फ़रसा नहीं रहा
अब्दुल ग़फ़ूर नस्साख़

