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पिछली तारीख़ का अख़बार सँभाले हुए हैं | शाही शायरी
pichhli tariKH ka aKHbar sambhaale hue hain

ग़ज़ल

पिछली तारीख़ का अख़बार सँभाले हुए हैं

प्रखर मालवीय कान्हा

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पिछली तारीख़ का अख़बार सँभाले हुए हैं
उनकी तस्वीर को बे-कार सँभाले हुए हैं

यार इस उम्र में घुंघरू की सदाएँ चुनते
आप ज़ंजीर की झंकार सँभाले हुए हैं

हम से ही लड़ता-झगड़ता है ये बूढ़ा सा मकाँ
हम ही गिरती हुई दीवार सँभाले हुए हैं

यार अब तक न मिला छोर हमें दुनिया का
रोज़-ए-अव्वल ही से रफ़्तार सँभाले हुए हैं

जिन के पैरों से निकाले थे कभी ख़ार बहुत
हैं मुख़ालिफ़ वही तलवार सँभाले हुए हैं

लोग पल भर में ही उकता गए जिस से 'कानहा'
हम ही बरसों से वो किरदार सँभाले हुए हैं