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पिछले सफ़र का अक्स-ए-ज़ियाँ मेरे सामने | शाही शायरी
pichhle safar ka aks-e-ziyan mere samne

ग़ज़ल

पिछले सफ़र का अक्स-ए-ज़ियाँ मेरे सामने

चंद्र प्रकाश शाद

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पिछले सफ़र का अक्स-ए-ज़ियाँ मेरे सामने
सब बस्तियाँ धुआँ ही धुआँ मेरे सामने

किस ख़ित्ता-ए-तलब में अचानक पड़े थे पाँव
उमडा हुआ था दश्त-ए-गुमाँ मेरे सामने

झोंका सा बीत जाऊँ कि दीवार सा रुकूँ
इक आ पड़ी है जा-ए-अमाँ मेरे सामने

शहर-ए-सदा पे है कोई पर्दा पड़ा हुआ
कोई गली न कोई मकाँ मेरे सामने

इस पर भी क्या सबब है कि उठते नहीं क़दम
जंगल न कोई कोह-ए-गिराँ मेरे सामने

देखो तो आबजू सी जो छू लूँ तो धूल ख़ाक
क्या शय है मिस्ल-ए-रेग-ए-रवाँ मेरे सामने

जिस के सबब रहा हदफ़-ए-रोज़-ओ-शब ही मैं
टूटी है उस उफ़ुक़ की कमाँ मेरे सामने