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पिछले पहर का सन्नाटा था | शाही शायरी
pichhle pahar ka sannaTa tha

ग़ज़ल

पिछले पहर का सन्नाटा था

नासिर काज़मी

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पिछले पहर का सन्नाटा था
तारा तारा जाग रहा था

पत्थर की दीवार से लग कर
आईना तुझे देख रहा था

बालों में थी रात की रानी
माथे पर दिन का राजा था

इक रुख़्सार पे ज़ुल्फ़ गिरी थी
इक रुख़्सार पे चाँद खिला था

ठोड़ी के जगमग शीशे में
होंटों का साया पड़ता था

चंद्र किरन सी उँगली उँगली
नाख़ुन नाख़ुन हीरा सा था

इक पाँव में फूल सी जूती
इक पाँव सारा नंगा था

तेरे आगे शम्अ धरी थी
शम्अ के आगे इक साया था

तेरे साए की लहरों को
मेरा साया काट रहा था

काले पत्थर की सीढ़ी पर
नर्गिस का इक फूल खिला था