फूलों को शर्मसार किया है कभी कभी
काँटों से हम ने प्यार किया है कभी कभी
मौक़ूफ़ चाक-ए-जेब-ओ-गरेबाँ ही पर नहीं
दामन भी तार-तार किया है कभी कभी
मैं मुज़्तरिब रहा हूँ ये सच है फ़िराक़ में
उन को भी बे-क़रार किया है कभी कभी
दिल का दिया जला के ख़ुद अपने ही ख़ून से
शब शब-भर इंतिज़ार किया है कभी कभी
तन्हा शब-ए-फ़िराक़ में तार-ए-नफ़स के साथ
तारों का भी शुमार किया है कभी कभी
ऐसा भी वक़्त आया है अक्सर हयात में
सर अपना सू-ए-दार किया है कभी कभी
सय्याद मेरे ताइर-ए-दिल ने क़फ़स को भी
नालों से पुर-बहार किया है कभी कभी
ग़ज़ल
फूलों को शर्मसार किया है कभी कभी
सय्यद जहीरुद्दीन ज़हीर