फूलों को छूने से नश्तर ज़ख़्मी होगा
अब के सर में लग कर पत्थर ज़ख़्मी होगा
काफ़ी दिन के ब'अद सफ़र से लौटा हूँ मैं
जिस्म थकन से चूर है बिस्तर ज़ख़्मी होगा
मौसम के चेहरे की शिकनें कहती हैं
आँखें होंगी या फिर मंज़र ज़ख़्मी होगा
मौजें दरिया के सीने पर क्या लिखती हैं
सोचा तो मैं अंदर अंदर ज़ख़्मी होगा
बर्ग-ए-गुल पर सूरज के नेज़े मत रक्खो
भोली-भाली तितली का पर ज़ख़्मी होगा
आँखों की बस्ती में जब बाज़ार सजेगा
कच्चे सपनों का सौदागर ज़ख़्मी होगा
मैं हाथों में ख़ंजर ले कर सोच रहा हूँ
लौटूँगा तो मेरा भी घर ज़ख़्मी होगा
ग़ज़ल
फूलों को छूने से नश्तर ज़ख़्मी होगा
जावेद अकरम फ़ारूक़ी