फूलने-फलने लगे हैं साहब-ए-ज़र और भी
तंग हो जाएगी धरती मुफ़लिसों पर और भी
ये ज़मीं ज़रख़ेज़ होगी ख़ून पी कर और भी
खेतियाँ उगला करेंगी लाल-ओ-गौहर और भी
हर ज़माने में सुबूत-ए-इश्क़ माँगा जाएगा
लाल माओं के चढ़ेंगे सूलियों पर और भी
फूलते-फलते हैं जज़्बे दर्द के माहौल में
ज़ख़्म खाएँ तो निखरते हैं सुख़न-वर और भी
आफ़्ताब उभरा है जिस दिन से नई तहज़ीब का
हो गया तारीक इंसाँ का मुक़द्दर और भी
जब चली तहरीक ता'मीर-ए-वतन की दोस्तो
हो गए बर्बाद कुछ बस्ते हुए घर और भी
जिस क़दर बाहर की रौनक़ में मगन होता गया
बढ़ गई बे-रौनक़ी इंसाँ के अंदर और भी
मैं बनाता जा रहा हूँ और भी कुछ आइने
वक़्त बरसाता चला जाता है पत्थर और भी
बस्तियों पर हादसों की चाँद-मारी के लिए
बढ़ रहे हैं औज की जानिब सितमगर और भी
मुनफ़रिद उस्ताद 'दानिश' भी हैं ग़ालिब की तरह
यूँ तो दुनिया में हैं 'नाज़' अच्छे सुख़न-वर और भी
ग़ज़ल
फूलने-फलने लगे हैं साहब-ए-ज़र और भी
नाज़ ख़यालवी