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फूलने-फलने लगे हैं साहब-ए-ज़र और भी | शाही शायरी
phulne-phalne lage hain sahab-e-zar aur bhi

ग़ज़ल

फूलने-फलने लगे हैं साहब-ए-ज़र और भी

नाज़ ख़यालवी

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फूलने-फलने लगे हैं साहब-ए-ज़र और भी
तंग हो जाएगी धरती मुफ़लिसों पर और भी

ये ज़मीं ज़रख़ेज़ होगी ख़ून पी कर और भी
खेतियाँ उगला करेंगी लाल-ओ-गौहर और भी

हर ज़माने में सुबूत-ए-इश्क़ माँगा जाएगा
लाल माओं के चढ़ेंगे सूलियों पर और भी

फूलते-फलते हैं जज़्बे दर्द के माहौल में
ज़ख़्म खाएँ तो निखरते हैं सुख़न-वर और भी

आफ़्ताब उभरा है जिस दिन से नई तहज़ीब का
हो गया तारीक इंसाँ का मुक़द्दर और भी

जब चली तहरीक ता'मीर-ए-वतन की दोस्तो
हो गए बर्बाद कुछ बस्ते हुए घर और भी

जिस क़दर बाहर की रौनक़ में मगन होता गया
बढ़ गई बे-रौनक़ी इंसाँ के अंदर और भी

मैं बनाता जा रहा हूँ और भी कुछ आइने
वक़्त बरसाता चला जाता है पत्थर और भी

बस्तियों पर हादसों की चाँद-मारी के लिए
बढ़ रहे हैं औज की जानिब सितमगर और भी

मुनफ़रिद उस्ताद 'दानिश' भी हैं ग़ालिब की तरह
यूँ तो दुनिया में हैं 'नाज़' अच्छे सुख़न-वर और भी