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फिरा किसी का इलाही किसी से यार न हो | शाही शायरी
phira kisi ka ilahi kisi se yar na ho

ग़ज़ल

फिरा किसी का इलाही किसी से यार न हो

ऐश देहलवी

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फिरा किसी का इलाही किसी से यार न हो
कोई जहान में बरगश्ता-ए-रोज़गार न हो

हम उस की चश्म-ए-सियह-मस्त के हैं मस्ताने
ये वो नशे हैं कि जिस का कभी उतार न हो

जहान में कोई कहता नहीं ख़ुदा-लगती
वो क्या करे जिसे दिल पर भी इख़्तियार न हो

न फाड़े दामन-ए-सहरा को क्यूँ कि दस्त-ए-जुनूँ
रहा जब अपने गरेबाँ में एक तार न हो

न खेल जान पर अपनी तू ऐ दिल-ए-नादाँ
ख़ुदा को याद कर इतना तू बे-क़रार न हो

न भूल ज़ोहद पे लज़्ज़त से बख़्शिश-ए-हक़ की
वो बे-नसीब है जब तक गुनाहगार न हो

तुम्हारे सर की क़सम खा के दर्द दिल का कहूँ
जो मेरे लिखने का यूँ तुम को ए'तिबार न हो

जनाब-ए-शैख़ जी साहिब मैं एक अर्ज़ करूँ
अगर मिज़ाज-ए-मुक़द्दस पे नागवार न हो

जनाब रिंदों से मिलते तो हैं पे डर है मुझे
कि दुश्मनों का किसी दिन वहाँ अचार न हो

बहुत है ख़ेमा-ए-गर्दूं के फूँकने को तो 'ऐश'
इस आह-ए-तुफ़्ता जिगर में असर हज़ार न हो