फिरा किसी का इलाही किसी से यार न हो
कोई जहान में बरगश्ता-ए-रोज़गार न हो
हम उस की चश्म-ए-सियह-मस्त के हैं मस्ताने
ये वो नशे हैं कि जिस का कभी उतार न हो
जहान में कोई कहता नहीं ख़ुदा-लगती
वो क्या करे जिसे दिल पर भी इख़्तियार न हो
न फाड़े दामन-ए-सहरा को क्यूँ कि दस्त-ए-जुनूँ
रहा जब अपने गरेबाँ में एक तार न हो
न खेल जान पर अपनी तू ऐ दिल-ए-नादाँ
ख़ुदा को याद कर इतना तू बे-क़रार न हो
न भूल ज़ोहद पे लज़्ज़त से बख़्शिश-ए-हक़ की
वो बे-नसीब है जब तक गुनाहगार न हो
तुम्हारे सर की क़सम खा के दर्द दिल का कहूँ
जो मेरे लिखने का यूँ तुम को ए'तिबार न हो
जनाब-ए-शैख़ जी साहिब मैं एक अर्ज़ करूँ
अगर मिज़ाज-ए-मुक़द्दस पे नागवार न हो
जनाब रिंदों से मिलते तो हैं पे डर है मुझे
कि दुश्मनों का किसी दिन वहाँ अचार न हो
बहुत है ख़ेमा-ए-गर्दूं के फूँकने को तो 'ऐश'
इस आह-ए-तुफ़्ता जिगर में असर हज़ार न हो
ग़ज़ल
फिरा किसी का इलाही किसी से यार न हो
ऐश देहलवी