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फिर वही क़त्ल-ए-मोहब्बत-ज़दगाँ है कि जो था | शाही शायरी
phir wahi qatl-e-mohabbat-zadagan hai ki jo tha

ग़ज़ल

फिर वही क़त्ल-ए-मोहब्बत-ज़दगाँ है कि जो था

जाफ़र ताहिर

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फिर वही क़त्ल-ए-मोहब्बत-ज़दगाँ है कि जो था
रसन-ओ-दार का आलम में समाँ है कि जो था

उन के हाथों में वही तेग़-ए-सितम है कि जो थी
दहर मातम-कदा-ए-बे-गुनहाँ है कि जो था

चश्म-ए-पुर-ख़ून-ए-वफ़ा लाला-निशाँ है कि जो थी
क़िस्मत-ए-बुल-हवसाँ ऐश-ए-जहाँ है कि जो था

हैरत-ए-अहल-ए-नज़र अहल-ए-हुनर है कि जो थी
शोहरा-ए-कम-नज़राँ बे-हुनराँ है कि जो था

रस्म-ए-आराइश-ए-ऐवान-ए-तरब है कि जो थी
सर-ए-फ़रहाद ये वो कोह-ए-गिराँ है कि जो था

ये शजर हैं कि सलीबें सी गड़ी हैं हर सू
मंज़िल-ए-इश्क़ वही संग-ए-निशाँ है कि जो था

दफ़्तर-ए-लाला-ओ-गुल है न वो दीवान-ए-बहार
ज़ीनत-ए-लौह-ए-चमन हर्फ़-ए-ख़िज़ाँ है कि जो था

ज़ेर-ए-हर-शाख़ शब-ओ-रोज़ क़फ़स ढलते हैं
आलम-ए-नौहा-गराँ बस्ता-पराँ है कि जो था

दौलत-ए-अहल-ए-तलब ख़ार-ए-सितम हैं कि जो थे
चार सू ग़ल्ग़ला-ए-गुल-बदनाँ है कि जो था

साया-ए-मुर्ग़-ए-परीदा है कि ये अब्र-ए-बहार
गिला-ए-मर्हमत-ए-आह-ए-तपाँ है कि जो था

है वही आज भी रंग-ओ-रविश-ए-रूद-ए-फ़रात
हर नफ़स मातमी-ए-तिश्ना-लबाँ है कि जो था

आज भी अर्ज़-ए-वफ़ा उन पे गिराँ है कि जो थी
आज भी हौसला-ए-शरह-ओ-बयाँ है कि जो था

न वफ़ाओं पे नज़र है न जफ़ाओं का मलाल
दिल में वो दर्द वो एहसास कहाँ है कि जो था

सौलत-ओ-सतवत-ए-अर्बाब-ए-हमम मिट के रही
लुट के भी हुस्न-ए-बुताँ हुस्न-ए-बुताँ है कि जो था

है तिरी याद नशात-ए-शब-ए-हिज्राँ कि जो थी
हाँ तिरा दर्द क़रार-ए-दिल-ओ-जाँ है कि जो था

जल्वा-ए-यार से महरूम है ग़म-ख़ाना-ए-दिल
ये वही तीरा-ओ-तारीक मकाँ है कि जो था

वक़्त के साथ बदलता नहीं जाफ़र-'ताहिर'
ये वही सोख़्ता-दिल सोख़्ता-जाँ है कि जो था