फिर तो सब हमदर्द बहुत अफ़्सोस के साथ ये कहते थे
ख़ुद ही लड़े भँवर से क्यूँ ज़हमत की हम जो बैठे थे
दिलों के इल्मों से वो उजाला था हर चेहरा काला था
यूँ तो किसी ने अपने भेद किसी को नहीं बताए थे
माथे जब सज्दों से उठे तो सफ़ों सफ़ों जो फ़रिश्ते थे
सब इस शहर के थे और हम इन सब के जानने वाले थे
अहल-ए-हुज़ूर की बात न पूछो कभी कभी उन के दिन भी
सोज़-ए-सफ़ा की इक सफ़रावी उकताहट में कटते थे
क़ालीनों पर बैठ के अज़्मत वाले सोग में जब रोए
दीमक लगे ज़मीर इस इज़्ज़त-ए-ग़म पर क्या इतराए थे
जिन की जीभ के कुंडल में था नीश-ए-अक़रब का पैवंद
लिक्खा है उन बद-सुखनों की क़ौम पे अज़दर बरसे थे
जिन के लहू से निखर रही हैं ये सरसब्ज़ हमेशगियाँ
अज़लों से वो सादिक़ जज़्बों तय्यब रिज़्क़ों वाले थे
ग़ज़ल
फिर तो सब हमदर्द बहुत अफ़्सोस के साथ ये कहते थे
मजीद अमजद

