EN اردو
फिर सियह-पोश हुई शाम नज़र में रखना | शाही शायरी
phir siyah-posh hui sham nazar mein rakhna

ग़ज़ल

फिर सियह-पोश हुई शाम नज़र में रखना

नाज़ क़ादरी

;

फिर सियह-पोश हुई शाम नज़र में रखना
तुम ये बेदर्दी-ए-अय्याम नज़र में रखना

मैं ने बातिल से कभी सुल्ह नहीं की लोगो
मेरी हक़-गोई का इनआ'म नज़र में रखना

ख़ूब है दर्द-ओ-ग़म-ए-दिल का मुदावा लेकिन
ख़ुद को भी ऐ दिल-ए-नाकाम नज़र में रखना

ठोकरें खा के सँभलते हैं सँभलने वाले
ये जो पत्थर हैं ब-हर गाम नज़र में रखना

इम्तिहाँ-गाह-ए-मोहब्बत से गुज़रने वालो
रोज़-ए-आशूरा का हंगाम नज़र में रखना

काबा-ए-फ़न की कशिश खींच रही है दिल को
फ़िक्र कब बाँधेगी एहराम नज़र में रखना

इंतिसाब-ए-ग़म-ए-हस्ती के लिए अब ऐ 'नाज़'
ख़ूबसूरत सा कोई नाम नज़र में रखना