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फिर सर-ए-दार-ए-वफ़ा रस्म ये डाली जाए | शाही शायरी
phir sar-e-dar-e-wafa rasm ye Dali jae

ग़ज़ल

फिर सर-ए-दार-ए-वफ़ा रस्म ये डाली जाए

ज़ुहूर-उल-इस्लाम जावेद

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फिर सर-ए-दार-ए-वफ़ा रस्म ये डाली जाए
गुल हो इक शम्अ तो इक और जला ली जाए

दूर करनी हो जो तारीकी-ए-राह-ए-इख़्लास
मशअ'ल-ए-अश्क-ए-नदामत ही जला ली जाए

आइना मैं ने सर-ए-राहगुज़र रखा है
ताकि अहबाब की कुछ ख़ाम-ख़याली जाए

हाल ये तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ पे हुआ करता है
जैसे मछली कोई पानी से निकाली जाए

तू इसे अपनी तमन्नाओं में शामिल कर ले
हम से तो तेरी तमन्ना न सँभाली जाए

आप के उठने पे महफ़िल का ये आलम पाया
जैसे हँसते हुए चेहरों से बहाली जाए

ख़स्तगी देखी है 'जावेद' फ़सील-ए-दिल की
इस पे बुनियाद शब-ए-ग़म की न डाली जाए