फिर लौटा है ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब सफ़र से
फिर नूर-ए-सहर दस्त-ओ-गरेबाँ है सहर से
फिर आग भड़कने लगी हर साज़-ए-तरब में
फिर शो'ले लपकने लगे हर दीदा-ए-तर से
फिर निकला है दीवाना कोई फूँक के घर को
कुछ कहती है हर राह हर इक राहगुज़र से
वो रंग है इमसाल गुलिस्ताँ की फ़ज़ा का
ओझल हुई दीवार-ए-क़फ़स हद्द-ए-नज़र से
साग़र तो खनकते हैं शराब आए न आए
बादल तो गरजते हैं घटा बरसे न बरसे
पा-पोश की क्या फ़िक्र है दस्तार सँभाला
पायाब है जो मौज गुज़र जाएगी सर से
ग़ज़ल
फिर लौटा है ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब सफ़र से
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़