फिर ए'तिबार-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
जो दिल तिरी नज़र से गिरा दिल नहीं रहा
नश्तर चुभोए अब न पशेमानी-ए-निगाह
मुझ को तो शिकवा-ए-ख़लिश-ए-दिल नहीं रहा
मौजें उभार कर मुझे जिस सम्त ले चलें
हद्द-ए-निगाह तक कहीं साहिल नहीं रहा
क्या कहिए अब मआ'ल-ए-मोहब्बत की सरगुज़िश्त
याद उस की रह गई है मगर 'दिल' नहीं रहा

ग़ज़ल
फिर ए'तिबार-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
दिल शाहजहाँपुरी