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फिर ए'तिबार-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा | शाही शायरी
phir etibar-e-ishq ke qabil nahin raha

ग़ज़ल

फिर ए'तिबार-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा

दिल शाहजहाँपुरी

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फिर ए'तिबार-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
जो दिल तिरी नज़र से गिरा दिल नहीं रहा

नश्तर चुभोए अब न पशेमानी-ए-निगाह
मुझ को तो शिकवा-ए-ख़लिश-ए-दिल नहीं रहा

मौजें उभार कर मुझे जिस सम्त ले चलें
हद्द-ए-निगाह तक कहीं साहिल नहीं रहा

क्या कहिए अब मआ'ल-ए-मोहब्बत की सरगुज़िश्त
याद उस की रह गई है मगर 'दिल' नहीं रहा