फिर आईना-ए-आलम शायद कि निखर जाए
फिर अपनी नज़र शायद ता-हद्द-ए-नज़र जाए
सहरा पे लगे पहरे और क़ुफ़्ल पड़े बन पर
अब शहर-बदर हो कर दीवाना किधर जाए
ख़ाक-ए-रह-ए-जानाँ पर कुछ ख़ूँ था गिरौ अपना
इस फ़स्ल में मुमकिन है ये क़र्ज़ उतर जाए
देख आएँ चलो हम भी जिस बज़्म में सुनते हैं
जो ख़ंदा-ब-लब आए वो ख़ाक-बसर जाए
या ख़ौफ़ से दर-गुज़रें या जाँ से गुज़र जाएँ
मरना है कि जीना है इक बात ठहर जाए
ग़ज़ल
फिर आईना-ए-आलम शायद कि निखर जाए
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़