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फैली है धूप जज़्बा-ए-इस्फ़ार देख कर | शाही शायरी
phaili hai dhup jazba-e-isfar dekh kar

ग़ज़ल

फैली है धूप जज़्बा-ए-इस्फ़ार देख कर

अक़ील जामिद

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फैली है धूप जज़्बा-ए-इस्फ़ार देख कर
हरगिज़ ठहर न साया-ए-अश्जार देख कर

चल आ वहीं चलें कि जहाँ शोर-ओ-शर न हो
तंग आ गया हूँ गर्मी-ए-बाज़ार देख कर

अफ़्वाह वो उड़ी थी कि मैं कल बहुत हँसा
रोता हूँ आज सुब्ह का अख़बार देख कर

ऐसा न हो कि क़ौम का बेड़ा ही ग़र्क़ हो
तक़रीर झाड़ क़ौम के मे'मार देख कर

'जामिद' मिरा वजूद है मलबा बना हुआ
इक ख़ौफ़ सर उठाता है दीवार देख कर