फैली है धूप जज़्बा-ए-इस्फ़ार देख कर
हरगिज़ ठहर न साया-ए-अश्जार देख कर
चल आ वहीं चलें कि जहाँ शोर-ओ-शर न हो
तंग आ गया हूँ गर्मी-ए-बाज़ार देख कर
अफ़्वाह वो उड़ी थी कि मैं कल बहुत हँसा
रोता हूँ आज सुब्ह का अख़बार देख कर
ऐसा न हो कि क़ौम का बेड़ा ही ग़र्क़ हो
तक़रीर झाड़ क़ौम के मे'मार देख कर
'जामिद' मिरा वजूद है मलबा बना हुआ
इक ख़ौफ़ सर उठाता है दीवार देख कर
ग़ज़ल
फैली है धूप जज़्बा-ए-इस्फ़ार देख कर
अक़ील जामिद