पतझड़ के नज़ारों की तरफ़ देख रहा हूँ
बे-कैफ़ बहारों की तरफ़ देख रहा हूँ
तक़दीर के मारों की तरफ़ देख रहा हूँ
मैं डूबते तारों की तरफ़ देख रहा हूँ
फिर दोस्तों यारों की तरफ़ देख रहा हूँ
साँपों की क़तारों की तरफ़ देख रहा हूँ
हैं दफ़्न जहाँ मेरी तमन्नाओं के अहराम
उन उजड़े दयारों की तरफ़ देख रहा हूँ
तू भी तो हज़ारों की तरफ़ देख ख़ुदारा
मैं भी तो हज़ारों की तरफ़ देख रहा हूँ
तो ग़ुंचा है ग़ुंचों की तरफ़ देख रहा है
मैं ख़ार हूँ ख़ारों की तरफ़ देख रहा हूँ
सरशार किनारे भी हैं अब डूबने वाले
बे-कार किनारों की तरफ़ देख रहा हूँ
ग़ज़ल
पतझड़ के नज़ारों की तरफ़ देख रहा हूँ
पंडित अमर नाथ होशियार पुरी