पसपा हुई सिपाह तो परचम भी हम ही थे
हैरत की बात ये है कि बरहम भी हम ही थे
गिरने लगे जो सूख के पत्ते तो ये खुला
गुलशन थे हम जो आप तो मौसम भी हम ही थे
हम ही थे तेरे वस्ल से महरूम उम्र भर
लेकिन तेरे जमाल के महरम भी हम ही थे
मंज़िल की बे-रुख़ी के गिला-मंद थे हमीं
हर रास्ते में संग-ए-मुजस्सम भी हम ही थे
अपनी ही आस्तीं में था ख़ंजर छुपा हुआ
'अमजद' हर एक ज़ख़्म का मरहम भी हम ही थे
ग़ज़ल
पसपा हुई सिपाह तो परचम भी हम ही थे
अमजद इस्लाम अमजद