EN اردو
परेशाँ क्यूँ न हो जावे नज़ारा | शाही शायरी
pareshan kyun na ho jawe nazara

ग़ज़ल

परेशाँ क्यूँ न हो जावे नज़ारा

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

;

परेशाँ क्यूँ न हो जावे नज़ारा
इस आराइश ने दिल पर नक़्श मारा

ये मश्शाता बला-ए-ताज़ा लाई
मुजअ'द कर दिया सर उस का सारा

हज़ारों चोटियाँ नन्ही थीं और बाल
न क्यूँ तख़्त अपना लुटवा दे हज़ारा

गुदाज़ आहन-दिलों को हुस्न जब दे
न होवे आब क्यूँकर संग-ए-ख़ारा

कहीं देखा है इस हैअत का मा'शूक़
नज़र कीजो मुस्लिमानाँ! ख़ुदा-रा

बले ऐ 'मुसहफ़ी' दीगर चे गोयम
अदा-ए-मू-ए-मानी किश्त मारा