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पर्दे पर्दे में ये कर लेती हैं राहें क्यूँकर | शाही शायरी
parde parde mein ye kar leti hain rahen kyunkar

ग़ज़ल

पर्दे पर्दे में ये कर लेती हैं राहें क्यूँकर

रियाज़ ख़ैराबादी

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पर्दे पर्दे में ये कर लेती हैं राहें क्यूँकर
पार हो जाती हैं सीने की निगाहें क्यूँकर

दिल में आने की निकल आती हैं राहें क्यूँकर
ऊपर उठ जाती हैं वो नीची निगाहें क्यूँकर

कर लिया करते थे दिल खोल के आहें क्यूँकर
अब ये रोना है कराहें तो कराहें क्यूँकर

गुदगुदाने नहीं आती हैं सर-ए-बाम तुम्हें
अर्श पर खेलती हैं जा के ये आहें क्यूँकर

निकलें घुँघट में ये मिज़्गाँ के जो निकलें भी कभी
शोख़ हो जाती हैं शर्मीली निगाहें क्यूँकर

तू भी जाने कि मिला चाहने वाला तुझ को
तू बता दे तिरे सदक़े तुझे चाहें क्यूँकर

क्या ख़बर है तुझे ओ चैन से सोने वाले
कि दम-ए-सर्द बना करती है आहें क्यूँकर

तूर वालो से लब-ए-बाम हैं आने वाले
देखें लड़ती हैं निगाहों से निगाहें क्यूँकर

शौक़ इधर शर्म उधर बात नई रात नई
देखें मिलती हैं निगाहों से निगाहें क्यूँकर

ये उमंगें ये तरंगें ये जवानी ये शबाब
तौबा कर के ये बताओ कि निबाहें क्यूँकर

शर्म के पुतले को आ जाती है क्यूँकर शोख़ी
बिजलियाँ बनती हैं शर्मीली निगाहें क्यूँकर

हम 'रियाज़' औरों से ख़ुद्दार सिवा हैं लेकिन
रह के माशूक़ों में हम वज़्अ निबाहें क्यूँकर