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पर्दा उठा के मेहर को रुख़ की झलक दिखा कि यूँ | शाही शायरी
parda uTha ke mehr ko ruKH ki jhalak dikha ki yun

ग़ज़ल

पर्दा उठा के मेहर को रुख़ की झलक दिखा कि यूँ

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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पर्दा उठा के मेहर को रुख़ की झलक दिखा कि यूँ
बाग़ में जा के सर्व को क़द की लचक दिखा कि यूँ

आतिश-ए-गुल चमन के बीच जब हमा सू हो शोला-ज़न
अपने लिबास-ए-सुर्ख़ की उस को भड़क दिखा कि यूँ

जो कोई पूछे जान-ए-मन शोख़ी ओ जल्वा किस तरह
लम्अ-ए-बर्क़ की तरह एक झमक दिखा कि यूँ

शीशे के बीच दुख़्त-ए-रज़ करती है शोख़-चश्मियाँ
तू भी टुक अपनी चश्म की उस को भड़क दिखा कि यूँ

नज़रें मिलावे गर कोई तुझ से कभी तो जान-ए-मन
उस के तईं तू दूर से आँखें तनिक दिखा कि यूँ

कब्क ओ तदरौ गर करें आगे तिरे ख़िराम-ए-नाज़
अपने ख़िराम-ए-नाज़ की उन को लटक दिखा कि यूँ

रातों को तुझ से जागना गर कोई पूछे 'मुसहफ़ी'
चश्म-ए-सितारा बाज़ हैं उस को फ़लक दिखा कि यूँ