EN اردو
पलकों पे भला कब ये ठहरने के लिए थे | शाही शायरी
palkon pe bhala kab ye Thaharne ke liye the

ग़ज़ल

पलकों पे भला कब ये ठहरने के लिए थे

नज़ीर मेरठी

;

पलकों पे भला कब ये ठहरने के लिए थे
मोती मिरी आँखों के बिखरने के लिए थे

चमके न किसी तौर भी ज़िंदा रहे जब तक
हम ख़ाक में मिल कर ही निखरने के लिए थे

अच्छा है कि अब साफ़ ही कह दीजिए साहब
वा'दे जो किए थे वो मुकरने के लिए थे

हम आज तिरी राह में काम आ गए आख़िर
ज़िंदा ही तिरे नाम पे मरने के लिए थे

अच्छा नहीं लगता था तिरे हिज्र में जीना
हम लौट गए थे तो बिखरने के लिए थे

हम लोग सज़ा-वार न थे वादी-ए-गुल के
काँटों-भरी राहों से गुज़रने के लिए थे

अहबाब भी दुश्मन नज़र आते हैं 'नज़ीर' आज
चेहरों पे लगे चेहरे उतरने के लिए थे