पलट कर अश्क सू-ए-चशम-ए-तर आता नहीं है
ये वो भटका मुसाफ़िर है जो घर आता नहीं है
क़फ़स अब आशियाँ है ख़ाक पर लिक्खी है रोज़ी
कभी दिल में ख़याल-ए-बाल-ओ-पर आता नहीं है
पहाड़ों की सियाही से फ़ुज़ूँ दिल की सियाही
वो हुस्न अब अपनी आँखों को नज़र आता नहीं है
शजर बरसों से नक़्श-ए-राएगाँ बन कर खड़े हैं
कोई मौसम हो शाख़ों में समर आता नहीं है
मिरे इस अव्वलीं अश्क-ए-मोहब्बत पर नज़र कर
ये मोती सीप में फिर उम्र-भर आता नहीं है
कोई क़ातिल रवाँ है मेरी शिरयानों में 'ख़ुर्शीद'
जो मुझ को क़त्ल करता है नज़र आता नहीं है

ग़ज़ल
पलट कर अश्क सू-ए-चशम-ए-तर आता नहीं है
ख़ुर्शीद रिज़वी