पल पल काँटा सा चुभता था
ये मिलना भी क्या मिलना था
ये काँटे और तेरा दामन
मैं अपना दुख भूल गया था
कितनी बातें की थीं लेकिन
एक बात से जी डरता था
तेरे हाथ की चाय तो पी थी
दिल का रंज तो दिल में रहा था
किसी पुराने वहम ने शायद
तुझ को फिर बेचैन किया था
मैं भी मुसाफ़िर तुझ को भी जल्दी
गाड़ी का भी वक़्त हुआ था
इक उजड़े से स्टेशन पर
तू ने मुझ को छोड़ दिया था
ग़ज़ल
पल पल काँटा सा चुभता था
नासिर काज़मी