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पल पल जीने की ख़्वाहिश में कर्ब-ए-शाम-ओ-सहर माँगा | शाही शायरी
pal pal jine ki KHwahish mein karb-e-sham-o-sahar manga

ग़ज़ल

पल पल जीने की ख़्वाहिश में कर्ब-ए-शाम-ओ-सहर माँगा

ज़फ़र गोरखपुरी

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पल पल जीने की ख़्वाहिश में कर्ब-ए-शाम-ओ-सहर माँगा
सब थे नशात-ए-नफ़अ' के पीछे हम ने रंज-ए-ज़रर माँगा

अब तक जो दस्तूर-ए-जुनूँ था हम ने वही मंज़र माँगा
सहरा दिल के बराबर चाहा और या आँखों भर माँगा

अब्र के एहसाँ से बचना था दिल को हरा भी रखना था
हम ने उस पौदे की ख़ातिर मौजा-ए-दीदा-ए-तर माँगा

फ़ासले कुछ क़दमों में समेटे आँखों में कुछ धूप के फूल
इस के अलावा और न हम ने कुछ सामान-ए-सफ़र माँगा

कोई सर-ओ-सामान नहीं और आँधी हर दिन का मा'मूल
हम ने भी क्या सोच समझ कर बे-दीवार का घर माँगा

सोच रहा हूँ अपनी हस्ती में अपना क्या हिस्सा था
दिल पर यारों का हक़ ठहरा और दुश्मन ने सर माँगा

खुला कि वो भी तेरी तलब का इक बे-नाम तसलसुल था
दुनिया से जो भी हम ने हालात के ज़ेर-ए-असर माँगा