पकड़ी किसी से जावे नसीम और सबा बंधे
मौला करे कुछ अपनी भी अब तो हवा बंधे
आशिक़ को बोग़-बंद में बाँधा है उस ने यूँ
ता हो के दस्त-ए-बुक़चा में जैसे क़बा बंधे
यूँ दूद आह का मिरी गुम्बद बँधा है याँ
छत जैसे अब्र-ए-तीरा की तहतस्समा बंधे
टुक आलम ऐ जुनूँ तू दिखा वो कि जिस से साफ़
लाहूत का समाँ मिरी आँखों में आ बंधे
सरमा घुला के आँखों में निकला न कीजिए
ऐसा न हो कि आप पे कुछ तूतिया बंधे
क़ुदरत ख़ुदा के देखो कि चोरी तो हम करें
और उल्टे दस्त-गीर हो दुज़द-ए-हिना बंधे
अलझेड़े में फँसे थे तिरी ज़ुल्फ़ के सो वो
उल्टे टँगे असीर हुए बारहा बंधे
'इंशा' सद-आफ़रीं तिरे ज़ेहन-ए-सलीम को
मज़मूँ ज़ियादा इस से भला और क्या बंधे
ग़ज़ल
पकड़ी किसी से जावे नसीम और सबा बंधे
इंशा अल्लाह ख़ान