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पैमाने में वो ज़हर नहीं घोल रहे थे | शाही शायरी
paimane mein wo zahr nahin ghol rahe the

ग़ज़ल

पैमाने में वो ज़हर नहीं घोल रहे थे

रियाज़ ख़ैराबादी

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पैमाने में वो ज़हर नहीं घोल रहे थे
मेरे लिए मयख़ाने का दर खोल रहे थे

मैं दैर में चुप दूर से मुँह देख रहा था
किस तरह बुरे बोल ये बुत बोल रहे थे

करते थे वो बैठे हुए नाख़ुन से जुदा गोश्त
कहने को मिरे दिल की गिरह खोल रहे थे

सय्याद ने कब नावक-ए-बेदाद लगाया
हम उड़ने को जब शाख़ से पर तोल रहे थे

ऐ आँख दुर-ए-अश्क वही नज़अ में काम आए
बन कर तिरे दामन में जो अनमोल रहे थे

हम बैठे थे किस तरह तह-ए-शाख़ फ़सुर्दा
गुल हँसते थे मुर्ग़ान-ए-चमन बोल रहे थे

शोख़ी से क़यामत को वो पासंग बना कर
हम कितने हैं बातों में हमें तोल रहे थे

थे सुब्ह को वो साग़र-ए-जम दस्त-ए-गदा में
आलूदा मय-ए-शब को जो कश्कोल रहे थे

कुछ चुप से हैं अब हश्र में आने से किसी के
बढ़ बढ़ के 'रियाज़' आज बहुत बोल रहे थे