पहलू को तिरे इश्क़ में वीराँ नहीं देखा
इस दिल को कभी ख़ाली-अज़-अरमाँ नहीं देखा
सूरत को मिरी देख के हैरत है तुम्हें क्या
तुम ने तो मिरा हाल-ए-परेशाँ नहीं देखा
मूसा हुए बेहोश तजल्ली-ए-लक़ा से
तालिब थे मगर जल्वा-ए-जानाँ नहीं देखा
रोते हैं गुनाहों पे वही जिन में है ईमाँ
काफ़िर को कभी हम ने पशेमाँ नहीं देखा
देखा जो मिरा दाग़-ए-जिगर हँस के वो बोले
ऐसा तो चराग़-ए-तह-ए-दामाँ नहीं देखा
ऐ दर्द-ए-जिगर चैन ज़रा लेने दे मुझ को
तुझ सा भी कोई जान का ख़्वाहाँ नहीं देखा
सर कट के गिरा शौक़ से क़ातिल के क़दम पर
ऐसा भी कोई बंदा-ए-एहसाँ नहीं देखा
रोने पे मिरी तुम को तहय्युर ये अबस है
क्या तुम ने कभी अब्र को गिर्यां नहीं देखा
देखी है बहुत आप ने आईने की हैरत
आशिक़ का मगर दीदा-ए-हैराँ नहीं देखा
सर-गश्ता वो सहरा-ए-मुसीबत में न होगा
जिस ने तिरी ज़ुल्फ़ों को परेशाँ नहीं देखा
पूछा जो 'जमीला' से तो वो मुझ से ये बोले
दिल सा तो कोई दूसरा ऐवाँ नहीं देखा

ग़ज़ल
पहलू को तिरे इश्क़ में वीराँ नहीं देखा
जमीला ख़ुदा बख़्श