पहली पहली वो मुलाक़ात वो बरसात की रात
याद है याद है वो शर्म-ओ-हिजाबात की रात
वो लगावट से हमा शिकवे-शिकायात की रात
वो तिरे साया-ए-गेसू में हिकायात की रात
डोल पर चाँद हरे खेत फ़ज़ाएँ ख़ामोश
कैसी मा'सूम हवा करती है देहात की रात
हश्र का रोज़ कभी ख़त्म तो होगा ज़ाहिद
आएगी आएगी ज़ालिम ये ख़राबात की रात
एक जन्नत के लिए इतना अलम शैख़-ए-हरम
काश होती तिरी क़िस्मत में ख़राबात की रात
इंक़लाब ऐसा भी मुमकिन है पलट दे तक़दीर
दूसरी बार मिरी पहली मुलाक़ात की रात
रूह पाबंद-ए-अनासिर है बस इतनी 'तालिब'
जैसे मेहमान मुसाफ़िर हो कोई रात की रात

ग़ज़ल
पहली पहली वो मुलाक़ात वो बरसात की रात
तालिब बाग़पती