पहले जैसा रंग-ए-बाम-ओ-दर नहीं लगता मुझे
अब तो अपना घर भी अपना घर नहीं लगता मुझे
लगती होगी तुझ को भी मेरी नज़र बदली हुई
तेरा पैकर भी तिरा पैकर नहीं लगता मुझे
क्या कहूँ इस ज़ुल्फ़ से वाबस्तगी का फ़ाएदा
अब अँधेरी रात में भी डर नहीं लगता मुझे
मुझ को ज़ख़्मी कर नहीं सकता कोई दस्त-ए-सितम
मैं नदी का चाँद हूँ पत्थर नहीं लगता मुझे
सुन्नत-शाह-ए-उमम का हूँ मैं लज़्ज़त-आश्ना
ख़ाक से बेहतर कोई बिस्तर नहीं लगता मुझे
जब से दस्तार-ए-फ़ज़ीलत पाई है दरबार में
जाने की शानों पे अपना सर नहीं लगता मुझे
हैं सुख़नवर 'नाज़' अच्छे और भी इस दौर में
कोई 'दानिश' का मगर हम-सर नहीं लगता मुझे
ग़ज़ल
पहले जैसा रंग-ए-बाम-ओ-दर नहीं लगता मुझे
नाज़ ख़यालवी