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पास-ए-नामूस-ए-तमन्ना हर इक आज़ार में था | शाही शायरी
pas-e-namus-e-tamanna har ek aazar mein tha

ग़ज़ल

पास-ए-नामूस-ए-तमन्ना हर इक आज़ार में था

होश तिर्मिज़ी

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पास-ए-नामूस-ए-तमन्ना हर इक आज़ार में था
नश्शा-ए-निगहत-ए-गुल भी ख़लिश-ए-ख़ार में था

किस से कहिए कि ज़माने को गराँ गुज़रा है
वो फ़साना कि मिरी हसरत-ए-गुफ़्तार में था

दिल कि आता ही नहीं तर्क-ए-तमन्ना की तरफ़
कोई इक़रार का पहलू तिरे इंकार में था

कुछ तुझे याद है ऐ चश्म-ए-ज़ुलेख़ा-ए-जहाँ
हम सा यूसुफ़ भी कोई मिस्र के बाज़ार में था

ज़िंदगी जा न सकी शाम-ओ-सहर से आगे
सारा आलम इसी आईना-ए-तकरार में था

उम्र भर चश्म-ए-तमाशा को रही जिस की तलाश
'होश' वो हुस्न-ए-गुरेज़ाँ मिरे अशआ'र में था