पाँव में क़ैस के ज़ंजीर भली लगती है
यूँ ही दीवाने की तस्वीर भली लगती है
अपनी क्या तुझ से कहूँ तू ही कह अपनी मुझ से
कि मुझे तेरी ही तक़रीर भली लगती है
ख़ुश-नुमा है तिरे आरिज़ पे ये ख़त यूँ जिस तरह
गिर्द क़ुरआन के तफ़्सीर भली लगती है
जब मिरे ख़ून में होती है वो रंगीं क़ातिल
उस घड़ी क्या तिरी शमशीर भली लगती है
होती है आशिक़ ओ माशूक़ की जिस में तस्वीर
अपनी आँखों में वो तामीर भली लगती है
मेरी तस्वीर को ग़मनाक तू खींच ऐ मानी
शक्ल उश्शाक़ की दिल-गीर भली लगती है
'मुसहफ़ी' बाजे है नौबत तो दर-ए-'आसिफ़' पर
क्या ही आवाज़-ए-बम-ओ-ज़ेर भली लगती है
ग़ज़ल
पाँव में क़ैस के ज़ंजीर भली लगती है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी