पा-ए-तलब की मंज़िल अब तक वही गली है
आग़ाज़ भी यही था अंजाम भी यही है
जिस दास्तान-ए-ग़म का उन्वान रौशनी है
हर लफ़्ज़ की सियाही ख़ुद मुँह से बोलती है
तर्ज़-ए-तपाक क़ाएम लुत्फ़-ए-नज़र वही है
लेकिन ये वाक़िआ' है फिर भी कोई कमी है
उन की नज़र से दिल की ये बहस हो रही है
क्या चीज़ ज़िंदगी में मक़्सूद-ए-ज़िंदगी है
हर लग़्ज़िश-ए-बशर पर तन्क़ीद करने वालो
तुम ये भुला चुके हो इंसान आदमी है
ये साज़िश-ए-तग़य्युर है कितनी जान-लेवा
मुझ को जगा के मेरी तक़दीर सो गई है
हाँ मेरे वास्ते है तख़सीस का ये पहलू
दुनिया समझ रही है अंदाज़-ए-बेरुख़ी है
मुमकिन नहीं कि दामन बे-दाग़ हो किसी का
सच पूछिए तो दुनिया काजल की कोठरी है
ताबिंदा हर-नफ़स है उम्मीद की बदौलत
मेहराब-ए-ज़िंदगी में इक शम्अ' जल रही है
देखे तो कोई शान-ए-सहर-ए-निगाह-ए-साक़ी
साग़र में खिंच के रूह-ए-मय-ख़ाना आ गई है
वाबस्ता-ए-नफ़स है नज़्म-ओ-निज़ाम-ए-हस्ती
या'नी हवा पे क़ाएम बुनियाद-ए-ज़िंदगी है
कब तक ये ख़्वाब-ए-ग़फ़लत जागो 'उरूज' जागो
अब धूप बढ़ते बढ़ते सर पर ही आ गई है

ग़ज़ल
पा-ए-तलब की मंज़िल अब तक वही गली है
उरूज ज़ैदी बदायूनी