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ओ मेरे मसरूफ़ ख़ुदा | शाही शायरी
o mere masruf KHuda

ग़ज़ल

ओ मेरे मसरूफ़ ख़ुदा

नासिर काज़मी

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ओ मेरे मसरूफ़ ख़ुदा
अपनी दुनिया देख ज़रा

इतनी ख़िल्क़त के होते
शहरों में है सन्नाटा

झोंपड़ी वालों की तक़दीर
बुझा बुझा सा एक दिया

ख़ाक उड़ाते हैं दिन रात
मीलों फैल गए सहरा

ज़ाग़ ओ ज़ग़न की चीख़ों से
सोना जंगल गूँज उठा

सूरज सर पे आ पहुँचा
गर्मी है या रोज़-ए-जज़ा

प्यासी धरती जलती है
सूख गए बहते दरिया

फ़सलें जल कर राख हुईं
नगरी नगरी काल पड़ा