नुमू तो पहले भी था इज़्तिराब मैं ने दिया
फिर उस के ज़ुल्म-ओ-सितम का जवाब मैं ने दिया
वो एक डूबती आवाज़-ए-बाज़गश्त कि आ
सवाल मैं ने किया था जवाब मैं ने दिया
वो आ रहा था मगर मैं निकल गया कहीं और
सौ ज़ख़्म-ए-हिज्र से बढ़ कर अज़ाब मैं ने दिया
अगरचे होंटों पे पानी की बूँद भी नहीं थी
सुलगते लम्हों को इक सैल-ए-आब मैं ने दिया
खुला है पहलू-ए-पुर-जोश बे-महाबा आ
इक और मश्वरा-ए-इंक़िलाब मैं ने दिया
ये मुझ से गिर्या-ए-बेबाक क्यूँ नहीं होता
तो अपने दर्द को ख़ुद पेच-ओ-ताब मैं ने दिया
नख़ील ओ किश्त को सैराब मैं नहीं करता
ज़मीं को क़र्ज़ मगर बे-हिसाब मैं ने दिया
बदन ख़ुद अपनी ही तज्सीम कर नहीं पाते
क़रीब आया तो आँखों को ख़्वाब मैं ने दिया
ग़ज़ल
नुमू तो पहले भी था इज़्तिराब मैं ने दिया
अबुल हसनात हक़्क़ी