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निज़ाम-ए-शम्स-ओ-क़मर कितने दस्त-ए-ख़ाक में हैं | शाही शायरी
nizam-e-shams-o-qamar kitne dast-e-KHak mein hain

ग़ज़ल

निज़ाम-ए-शम्स-ओ-क़मर कितने दस्त-ए-ख़ाक में हैं

सुलैमान अरीब

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निज़ाम-ए-शम्स-ओ-क़मर कितने दस्त-ए-ख़ाक में हैं
ज़माने जैसे तिरी चश्म-ए-ख़्वाब-नाक़ में हैं

शराब-ओ-शेर में उर्यां तो हो गए लेकिन
फ़ज़ा-ए-ज़ात के पर्दे हर एक चाक में हैं

शगुफ़्त-ए-लाला-ओ-गुल में भी सब कहाँ निखरे
न जाने कितने शहीदों के ख़्वाब ख़ाक में हैं

तिरा विसाल ज़मिस्ताँ की रात हो जैसे
वो सर्द-मेहरी के पहलू तिरे तपाक में हैं

जो सर उठा के चलें तुम ही इक नहीं हो 'अरीब'
कुछ ऐसे लोग अभी तक तो हिंद-ओ-पाक में हैं