निज़ाम-ए-शम्स-ओ-क़मर कितने दस्त-ए-ख़ाक में हैं
ज़माने जैसे तिरी चश्म-ए-ख़्वाब-नाक़ में हैं
शराब-ओ-शेर में उर्यां तो हो गए लेकिन
फ़ज़ा-ए-ज़ात के पर्दे हर एक चाक में हैं
शगुफ़्त-ए-लाला-ओ-गुल में भी सब कहाँ निखरे
न जाने कितने शहीदों के ख़्वाब ख़ाक में हैं
तिरा विसाल ज़मिस्ताँ की रात हो जैसे
वो सर्द-मेहरी के पहलू तिरे तपाक में हैं
जो सर उठा के चलें तुम ही इक नहीं हो 'अरीब'
कुछ ऐसे लोग अभी तक तो हिंद-ओ-पाक में हैं
ग़ज़ल
निज़ाम-ए-शम्स-ओ-क़मर कितने दस्त-ए-ख़ाक में हैं
सुलैमान अरीब