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निपटेंगे दिल से मार्का-ए-रह-गुज़र के ब'अद | शाही शायरी
nipTenge dil se marka-e-rah-guzar ke baad

ग़ज़ल

निपटेंगे दिल से मार्का-ए-रह-गुज़र के ब'अद

परवेज़ शाहिदी

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निपटेंगे दिल से मार्का-ए-रह-गुज़र के ब'अद
लेंगे सफ़र का जाएज़ा ख़त्म-ए-सफ़र के ब'अद

उठने को इन की बज़्म में सब की नज़र उठी
इतना मगर कहूँगा कि मेरी नज़र के ब'अद

सब ज़ोर हो रहा है मिरी सर-कशी पे सर्फ़
क्या होगा हाल-ए-दार-ओ-रसन मेरे सर के ब'अद

कू-ए-सितम से गुज़रें तो शोरीदगान-ए-इश्क़
हँसने लगेंगे ज़ख़्म-ए-जिगर ज़ख़्म-ए-सर के ब'अद

बर्क़-ए-सितम को नज़्र करूँ भी तो क्या करूँ
अब क्या रहा है आग लगाने को घर के ब'अद

बे-ख़्वाब कर रहे हैं शब-ए-ग़म के मरहले
आँखें झपक न जाएँ तुलू-ए-सहर के ब'अद

होगा तवील और भी अफ़साना-ए-वफ़ा
अहल-ए-जफ़ा के तन्तना-ए-मुख़्तसर के ब'अद