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निकली जो रूह हो गए अजज़ा-ए-तन ख़राब | शाही शायरी
nikli jo ruh ho gae ajza-e-tan KHarab

ग़ज़ल

निकली जो रूह हो गए अजज़ा-ए-तन ख़राब

अहमद हुसैन माइल

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निकली जो रूह हो गए अजज़ा-ए-तन ख़राब
इक शम्अ' बुझ गई तो हुई अंजुमन ख़राब

क्यूँ डालता है ख़ाक कि होगा कफ़न ख़राब
मैं हूँ सफ़ेद-पोश न कर पैरहन ख़राब

जी में ये है कि दिल ही को सज्दे क्या करूँ
दैर-ओ-हरम में लोग हैं ऐ जान-ए-मन ख़राब

नाज़ुक दिलों का हुस्न है रंग-ए-शिकस्तगी
फटने से कब गुलों का हुआ पैरहन ख़राब

दुनिया ने मुँह पे डाला है पर्दा सराब का
होते हैं दौड़ दौड़ के तिश्ना-दहन ख़राब

इबलीस से ये कहता है ला'नत का तौक़ रोज़
आदम ख़राब या सिफ़त मा-ओ-मन ख़राब

क्या ख़ुशनुमा हो ख़िज़्र बढ़े गर लिबास-ए-उम्र
क़द से जो हो दराज़ तो हो पैरहन ख़राब

मेरा सलाम-ए-इश्क़ अलैहिस-सलाम को
ख़ुसरव इधर ख़राब उधर कोहकन ख़राब

यूसुफ़ के हुस्न ने ये ज़ुलेख़ा को दी सदा
लो उँगलियाँ कटीं वो हुए ता'ना-ज़न ख़राब

गर बस चले तो आप फिरूँ अपने गिर्द में
का'बे को जा के कौन हो ऐ जान-ए-मन ख़राब

ज़ख़्मी हुआ है नाम को दर-पर्दा हुस्न भी
यूसुफ़ का ख़ून-ए-गुर्ग से है पैरहन ख़राब

वा'दा किया है ग़ैर से और वो भी वस्ल का
कुल्ली करो हुज़ूर हुआ है दहन ख़राब

ऐ ख़ाक-ए-गोर देख न धब्बा लगे कहीं
रख दूँ अभी उतार के गर हो कफ़न ख़राब

कैसी भी हो ज़मीन अजब हल है तब-ए-तेज़
'माइल' जो बोएँ हम न हो तुख़्म-ए-सुख़न ख़राब