निखरना अक़्ल-ओ-ख़िरद का अगर ज़रूरी है
जुनूँ की राहबरी में सफ़र ज़रूरी है
हक़ीक़तों से जो होता है आश्ना ऐ दोस्त
तो इस के वास्ते राह-ए-ख़तर ज़रूरी है
किसी की नीची नज़र का सलाम साथ रहे
सफ़र के वास्ते ज़ाद-ए-सफ़र ज़रूरी है
मगर ये शर्त है हर लफ़्ज़ रूह से निकले
दुअा-ए-नीम-शबी में असर ज़रूरी है
दिलों का हाल न चेहरों से हो सके ज़ाहिर
ख़िरद के दौर में ये भी हुनर ज़रूरी है
'उबैद' दूसरों को कर चुके बहुत तल्क़ीन
अब अपने आप पे भी इक नज़र ज़रूरी है
ग़ज़ल
निखरना अक़्ल-ओ-ख़िरद का अगर ज़रूरी है
ओबैदुर् रहमान