EN اردو
निकल के हल्क़ा-ए-शाम-ओ-सहर से जाएँ कहीं | शाही शायरी
nikal ke halqa-e-sham-o-sahar se jaen kahin

ग़ज़ल

निकल के हल्क़ा-ए-शाम-ओ-सहर से जाएँ कहीं

अमजद इस्लाम अमजद

;

निकल के हल्क़ा-ए-शाम-ओ-सहर से जाएँ कहीं
ज़मीं के साथ न मिल जाएँ ये ख़लाएँ कहीं

सफ़र की रात है पिछली कहानियाँ न कहो
रुतों के साथ पलटती हैं कब हवाएँ कहीं

फ़ज़ा में तैरते रहते हैं नक़्श से क्या क्या
मुझे तलाश न करती हों ये बलाएँ कहीं

हवा है तेज़ चराग़-ए-वफ़ा का ज़िक्र तो क्या
तनाबें ख़ेमा-ए-जाँ की न टूट जाएँ कहीं

मैं ओस बन के गुल-ए-हर्फ़ पर चमकता हूँ
निकलने वाला है सूरज मुझे छुपाएँ कहीं

मिरे वजूद पे उतरी हैं लफ़्ज़ की सूरत
भटक रही थीं ख़लाओं में ये सदाएँ कहीं

हवा का लम्स है पाँव में बेड़ियों की तरह
शफ़क़ की आँच से आँखें पिघल न जाएँ कहीं

रुका हुआ है सितारों का कारवाँ 'अमजद'
चराग़ अपने लहू से ही अब जलाएँ कहीं