निकाल लाया है घर से ख़याल का क्या हो
लगा है ज़ख़्म तो अब इंदिमाल का क्या हो
ले आए कूचा-ए-दिलबर से दिल को समझा कर
है बे-क़रार बहुत देख-भाल का क्या हो
लुटा के माज़ी नज़र इस सदी पे रक्खी है
पे नक़्शा देखिए तहसील हाल का क्या हो
अभी ज़माना-ए-मौजूद की गिरफ़्त में हूँ
मैं सोचता हूँ कि फ़िक्र-ए-मआल का क्या हो
था बाब-ए-शौक़ कि औराक़-ए-शब पे लिखते रहे
उड़ा के ले गई शब तो मलाल का क्या हो
ख़याल-ए-ख़ाम को दुनिया उपज समझती है
हमारी दीदा-वरी के कमाल का क्या हो
निगार-ए-ज़ीस्त को अव्वल बहुत हसीं पाया
उलझ गया हूँ तो अब इस वबाल का क्या हो
जो असल माजरा था बरमला कहा मैं ने
फिर उस के ब'अद तिरे एहतिमाल का क्या हो
ख़याल रहता है 'शाहिद' वो तुर्श-रू है बहुत
वहाँ जो जाऊँ तो वज़-ए-सवाल का क्या हो
ग़ज़ल
निकाल लाया है घर से ख़याल का क्या हो
सिद्दीक़ शाहिद