नींदों को जब ख़्वाब में जूता जाता था
मैं बस अपने नैन भिगोता जाता था
आँचल का इक फूल शरारत करता था
इक शहज़ादा पत्थर होता जाता था
फूल दुआ-ए-नूर सुनाते थे और मैं
उस की ख़ातिर हार पिरोता जाता था
इश्क़ में हम ने जितने रंग अपनाए थे
वहशी धोबी सब को धोता जाता था
पानी भरने एक कुएँ पर जाती थी
उस का पानी मीठा होता जाता था
मेरी हालत इतनी अबतर हो गई क्या
कहते हैं कल वो भी रोता जाता था
मैं 'मुमताज़' गुलाबों जैसा होने को
उस की ख़ुशबू दिल में बोता जाता था
ग़ज़ल
नींदों को जब ख़्वाब में जूता जाता था
मुमताज़ गुर्मानी