नींद भी तेरे बिना अब तो सज़ा लगती है
चौंक पड़ता हूँ अगर आँख ज़रा लगती है
फ़ासला क़ुर्ब बना क़ुर्ब भी ऐसा कि मुझे
दिल की धड़कन तिरे क़दमों की सदा लगती है
दुश्मन-ए-जाँ ही सही दोस्त समझता हूँ उसे
बद-दुआ जिस की मुझे बन के दुआ लगती है
ख़ुद अगर नाम लूँ तेरा तो लरज़ता है बदन
ग़ैर गर बात करे चोट सिवा लगती है
ऐसे महबस में जन्म अपना हुआ है कि मुझे
हर दरीचे से बड़ी सर्द हवा लगती है
तंज़-आमेज़ नहीं है मिरा अंदाज़-ए-सुख़न
तल्ख़ बे-शक है मगर बात जुदा लगती है
ग़ज़ल
नींद भी तेरे बिना अब तो सज़ा लगती है
मुर्तज़ा बिरलास