निगाह-ए-ख़ाक! ज़रा पैराहन बदलना तो
वबाल-ए-रूह मिरा ये बदन बदलना तो
हक़ीक़तों के सफ़र में बहुत अकेली हूँ
मजाज़-ए-इश्क़! ज़रा बाँकपन बदलना तो
जुनूँ के बोझ से थकने लगा ज़मान ओ ख़ला
ग़रीब-ए-शौक़ ज़रा फिर वतन बदलना तो
नया मिले तो कोई ज़ाइक़ा तमन्ना को
दिल-ए-तबाह मिरी ये जलन बदलना तो
सुलग रही हूँ अभी भी मगर मज़ा ही नहीं
सराब-ए-नाज़ ग़मों की अगन बदलना तो
ग़ज़ल
निगाह-ए-ख़ाक! ज़रा पैराहन बदलना तो
सरवत ज़ेहरा