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निगाह-ए-ख़ाक! ज़रा पैराहन बदलना तो | शाही शायरी
nigah-e-KHak! zara pairahan badalna to

ग़ज़ल

निगाह-ए-ख़ाक! ज़रा पैराहन बदलना तो

सरवत ज़ेहरा

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निगाह-ए-ख़ाक! ज़रा पैराहन बदलना तो
वबाल-ए-रूह मिरा ये बदन बदलना तो

हक़ीक़तों के सफ़र में बहुत अकेली हूँ
मजाज़-ए-इश्क़! ज़रा बाँकपन बदलना तो

जुनूँ के बोझ से थकने लगा ज़मान ओ ख़ला
ग़रीब-ए-शौक़ ज़रा फिर वतन बदलना तो

नया मिले तो कोई ज़ाइक़ा तमन्ना को
दिल-ए-तबाह मिरी ये जलन बदलना तो

सुलग रही हूँ अभी भी मगर मज़ा ही नहीं
सराब-ए-नाज़ ग़मों की अगन बदलना तो