निबाह बात का उस हीला-गर से कुछ न हुआ
इधर से क्या न हुआ पर उधर से कुछ न हुआ
जवाब-ए-साफ़ तो लाता अगर न लाता ख़त
लिखा नसीब का जो नामा-बर से कुछ न हुआ
हमेशा फ़ित्ने ही बरपा किए मिरे सर पर
हुआ ये और तो उस फ़ित्नागर से कुछ न हुआ
बला से गिर्या-ए-शब तू ही कुछ असर करता
अगरचे इश्क़ में आह-ए-सहर से कुछ न हुआ
जला जला के किया शम्अ साँ तमाम मुझे
बस और तो मुझे सोज़-ए-जिगर से कुछ न हुआ
रहीं अदू से वही गर्म-जोशियाँ उस की
इस आह-ए-सर्द और इस चश्म-ए-तर से कुछ न हुआ
उठाया इश्क़ में क्या क्या न दर्द-ए-सर मैं ने
हुसूल पर मुझे उस दर्द-ए-सर से कुछ न हुआ
शब-ए-विसाल में भी मेरी जान को आराम
अज़ीज़ो दर्द-ए-जुदाई के डर से कुछ न हुआ
न दूँगा दिल उसे मैं ये हमेशा कहता था
वो आज ले ही गया और 'ज़फ़र' से कुछ न हुआ
ग़ज़ल
निबाह बात का उस हीला-गर से कुछ न हुआ
बहादुर शाह ज़फ़र