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ने ज़ख़्म-ए-ख़ूँ-चकाँ हूँ न हल्क़-ए-बुरीदा हूँ | शाही शायरी
ne zaKHm-e-KHun-chakan hun na halq-e-burida hun

ग़ज़ल

ने ज़ख़्म-ए-ख़ूँ-चकाँ हूँ न हल्क़-ए-बुरीदा हूँ

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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ने ज़ख़्म-ए-ख़ूँ-चकाँ हूँ न हल्क़-ए-बुरीदा हूँ
आशिक़ हूँ मैं किसी का और आफ़त-रसीदा हूँ

हस्ती से अपनी मुझ को नहीं मुतलक़ आगही
उम्र-ए-गुज़िश्ता या कि ग़ज़ाल-ए-रमीदा हूँ

निकले है मेरी वज़्अ से इक शोरिश-ए-जुनूँ
दरिया नहीं मैं सैल-ए-गिरेबाँ-दरीदा हूँ

मुर्ग़ान-ए-बाग़ में मिरे नाले का शोर है
हर-चंद मैं अभी नफ़्स-ए-ना-कशीदा हूँ

पहुँचे सज़ा को अपनी जो मुँह पर मिरे चढ़े
मैं दस्त-ए-रोज़गार में तेग़-ए-कशीदा हूँ

जाता है जल्द क़ाफ़िला-ए-उम्र किस क़दर
मोहलत नहीं है इतनी कि टुक आर्मीदा हूँ

कौन उठ गया है पास से मेरे जो 'मुसहफ़ी'
रोता हूँ ज़ार ज़ार पड़ा आब-दीदा हूँ